मुझे दीवाली पूजन में कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही। कानपुर के अपने गाँव में पूजन अजिया (दादी) करती थीं, कानपुर शहर के अपने घर में पिताजी-अम्माँ और यहाँ दिल्ली में मलकिनी। बीच में 2002 से 2005 तक जब मैं कानपुर अमर उजाला का संपादक था, तब वहाँ दीवाली को अखबार का दफ्तर खुलता था, और अगले रोज़ परेवा को छुट्टी होती थी। जबकि दिल्ली, चंडीगढ़ और कलकत्ता में ऐन दीवाली के रोज़ छुट्टी होती थी। कानपुर में पूरे संपादकीय स्टाफ को दीवाली की रात हड़बड़ी होती, कि वह रात 9 या 10 के बीच निकल जाए। तब मैं अपने केबिन से निकल कर संपादकीय डेस्क पर आसन जमाता, और कह देता, जिसको जाना हो जाए, मैं रात दो बजे अखबार छोड़ कर जाऊंगा। दो रिपोर्टर मेरे साथ रुकते, शैलेश अवस्थी और रज़ा शास्त्री। एक पेज़ मेकर भी रुकता। ड्राइवर को भी छुट्टी दे देता। रात दो बजे जब मैं ऑफिस से निकलता, तो पाता, कि बिजली की लड़ियों से पूरा कानपुर शहर जगमग कर रहा है। तब तक धूम-धड़ाका भी बंद हो जाता। नीरव शांति होती। फज़ल गंज चौराहे से मैं गाड़ी राइट को मोड़ता और फुल स्पीड पर कालपी रोड पर दौड़ा देता। अर्मापुर गन फैक्ट्री के आगे मैं कार नहर की पटरी पर विपरीत दिशा में मोड़ता और पावर हाउस का कट पार कर दस-पंद्रह किमी आगे निकल जाता। हरिद्वार से आ रही इस अपर गंगा कैनाल के दोनों तरफ 2-2 सौ मीटर तक तब घना जंगल था। दीवाली की रात खूब अंधेरा होता। आसमान की तरफ देखो तो लगता, कि तारों का जाल धरती के ऊपर का सारा इलाका ढके है।
नीचे नहर लबालब भरी हुई। वहाँ नहर विभाग की एक एक सूनसान कोठी थी। उस कोठी को भुतहा कहा जाता था, क्योंकि वर्षों पहले दो दुधहों- तिवारी जी और यादव जी ने मिलकर लाठी-डंडों से एक अंग्रेज़ को मार गिराया था। वह अंग्रेज़ गाँव की बहू-बेटियों पर बुरी निगाह रखता था। बाद में दोनों दुधहों को फांसी हुई। मैं इस कोठी के सामने गाड़ी रोक कर प्रकृति की इस अद्भुत लीला को निहारता रहता। न शोर न शराबा, बस झींगुरों की आवाज गूँजती। कहीं कोई सियार या कोई लाखुर निकलता। नहर में पानी के करीब जाकर बैठता। बीच-बीच में पानी से ऊपर कोई कछुआ निकलता डुप्प की आवाज़ आती, और वह कछुआ गायब! पानी पर तैरते हुए साँप भी दिखते। यह दिलचस्प है, कि चाहे जितना घना अंधेरा हो, पानी का प्रकाश उस अंधेरे में भी चमकता है। लगता, इसी नहर पर उतराते हुए गंगा से जा कर मिलूँ, फिर वहाँ से गंगा सागर। कैसी होगी वह यात्रा! सुबह तक बैठा रहता, फिर वहीं से निपट कर अपने घर को प्रस्थान करता। नहर आज भी है, कोठी भी होगी। पर अब दीवाली की रात का वह रोमांस देखने को नहीं मिलेगा।
दीवाली पूजन का लुत्फ तो सब उठाते हैं, लक्ष्मी का आव्हान भी करते हैं, लेकिन क्या आपने कभी दीवाली की अंधेरी रात को प्रकृति की इस लीला को देखा है!
पुनश्च: अभी मुझे कानपुर के लोक इतिहासकार श्री अनूप शुक्ल (Anoop Shukla) ने बताया है, कि नहर विभाग की वह कोठी अभी भी है। और नहर विभाग की उस कोठी का फोटो उन्होंने भेज दिया है, जिसे मैं लोड कर रहा हूँ। जिन दो दुधहों ने अंग्रेज़ को पीट-पीट कर मारा था, वे दोनों टिकरा गाँव के थे। इनमें से एक कालीचरण तिवारी को तो फांसी हो गई थी, और दूसरे मन्नीलाल यादव को आजीवन कारावास। 1942 के शोर में इन दोनों वीरों को भुला दिया गया।
शंभूनाथ की फेसबुक वॉल से - अंग्रेज कोठी