बी एच यू के संस्कृत विभाग में फिरोज़ खान की नियुक्ति पर हो रहे विवाद पर तरस आता है। इन मूर्खों को कोई यह समझाने वाला नहीं है कि कोई भी भाषा किसी जाति या धर्म की जागीर नहीं होती। सभी भाषाएं मनुष्यता की पोषक होती हैं। संस्कृत भाषा के अलोकप्रिय होने , विलुप्त होने का एक बड़ा कारण है कि इसे ब्राह्मणों की भाषा बता दिया गया। जब कि ऐसा नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे उर्दू मुसलमानों की भाषा नहीं है। अरबी , फ़ारसी भी अरबों और मुसलमानों की भाषा नहीं है। जैसे अंगरेजी , अंगरेजों भर की भाषा नहीं है। मेरे पितामह पूजनीय सत्यराम पांडेय और पड़पितामह पूजनीय रामशरण पांडेय फ़ारसी और उर्दू के ही अध्यापक थे। दोनों ही हेडमास्टर पद से सेवानिवृत्त हुए थे। धोती , कुरता और गांधी टोपी लगा कर पढ़ाते थे। दोनों ही लोग पूजा-पाठी थे। चंदन और टीका भी खूब धज से लगाते थे। अभी भी मैं ऐसे बहुत से युवा ब्राह्मणों को जानता हूं जो संस्कृत और फ़ारसी समान अधिकार से जानते हैं बल्कि विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ा रहे हैं। दूतावासों में काम कर रहे हैं। पंडित जगन्नाथ आज़ाद उर्दू के बड़े शायरों में शुमार हैं। एक समय प्रकाश पंडित के संपादन में प्रकाशित बहुत से उर्दू शायरों के दीवान देवनागरी में हमने पढ़े हैं। रहीम , रसखान , खुसरो हमारी साझी धरोहर हैं ही। ऐसे बहुत से मुसलमान हैं जो वेद , उपनिषद की बढ़िया जानकारी तो रखते ही हैं , संस्कृत से दिली मुहब्बत है उन्हें। संस्कृत में लिखते , पढ़ते हैं। तो इस लिए कि सभी भाषाएं आपस में बहने हैं। मनुष्यता की हामीदार हैं और हमारी साझी धरोहर हैं। फ़िरोज खान के पिता तो रामायण और भजन भी गाते हैं झूम कर। गऊशाला चलाते हैं। फ़िरोज़ खान का बी एच यू में विरोध करने वालों की जगह सिर्फ़ और सिर्फ़ जेल है।
दयानंद पांडे की फेसबुक वॉल से