(फोटो साभार ट्रिब्यून)
कृष्ण कान्त
"जहांगीरपुरी में हनुमान जयंती के अनधिकृत जुलूस को रोकने में दिल्ली पुलिस पूरी तरह नाकाम रही। ऐसा लगता है कि स्थानीय पुलिस शुरुआत में ही इस अवैध जुलूस को रोकने तथा भीड़ को तितर-बितर करने के बजाय उसके साथ रही। बाद में दो समुदायों के बीच दंगे हुए। राज्य का यह स्वीकार करना सही है कि गुजर रहा अंतिम जुलूस गैरकानूनी था (जिस दौरान दंगे हुए) और इसके लिए पुलिस से पूर्व अनुमति नहीं ली गयी थी। पूरे घटनाक्रम, दंगे रोकने तथा कानून एवं व्यवस्था बनाए रखने में स्थानीय प्रशासन की भूमिका की जांच किए जाने की आवश्यकता है। लगता है कि इस मुद्दे को वरिष्ठ अधिकारियों ने पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया है। अगर पुलिसकर्मियों की मिलीभगत थी, तो इसकी जांच करके संबंधित अधिकारियों की जवाबदेही तय की जानी चाहिए ताकि भविष्य में ऐसी कोई घटना न हो।"
रोहिणी कोर्ट की यह टिप्पणी बेहद गंभीर है। पुलिस दंगा रोकने की जगह दंगाइयों का साथ दे रही थी। इसके पहले जब दिल्ली में दंगा हुआ था, तब भी पुलिस की भूमिका पर सवाल उठे थे। दिल्ली पुलिस हर सुनवाई में डांट खानी पड़ी। अंतत: हाईकोर्ट ने आदेश दिया कि जिसके भाषण के बाद यह दंगा हुआ, उसपर कार्रवाई की जाए तो जज का ट्रांसफर कर दिया गया।
यह मसला बेहद गंभीर इसलिए है क्योंकि दिल्ली देश की राजधानी है। दिल्ली की पुलिस बेहद पेशेवर और कुशल रही है। यह सीधे देश के गृहमंत्री के नियंत्रण में होती है। दो दो बार दंगों में पुलिस की भूमिका सवालों के घेरे में कैसे आई? जाहिर है कि पुलिस पर कोई ऐसा करने का दबाव डालता होगा। गृहमंत्री के नियंत्रण वाली पुलिस पर कौन दबाव डाल सकता है? कौन है जो इस देश की राजधानी को बार बार दंगे की आग में झोंकना चाहता है? ऐसे लोगों को पहचानिए और उनसे सतर्क रहिए। वे देश का भला नहीं चाहते। बहुत खतरनाक लोग हैं।