विजय शंकर सिंह
अदालत द्वारा असंवैधानिक घोषित किसी कानून को, असंवैधानिकता के आधार का निराकरण किए बिना, दुबारा कानून बना कर, लागू करना, अवैध है.
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ईडी निदेशक संजय कुमार मिश्रा के कार्यकाल में दिए गए विस्तार पर रोक लगाते हुए, और सेवा विस्तार के फैसले को अवैध ठहराते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने, एक महत्वपूर्ण कानूनी विंदु की व्याख्या की है। वह विंदु है, क्या सुप्रीम कोर्ट द्वारा, दिए गए किसी फैसले के संवैधानिक आधार को, जिस आधार पर, राज्य का निर्णय रद्द किया गया हो, उसे, कार्यपालिका दुबारा अध्यादेश अथवा विधायिका दुबारा कानून बनाकर लागू कर सकती है? इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने पुनः इसी कानूनी विंदु को दोहराया है कि, किसी फैसले के आधार विंदु, जिन कारणों से असंवैधानिक घोषित किया गया है, का निराकरण किए बिना, उसे रद्द करने का विधायी कार्य एक अनुचित कृत्य है।
अदालत का कहना है कि, राज्य के किसी निर्णय को, जिसे अदालत, असंवैधानिक घोषित कर चुकी हो या अदालत ने, उसके कुछ अंश को, असंवधानिक पाते हुए रद्द कर दिया हो, तो, फिर उसी मामले में, उक्त असंवैधानिक विसंगतियों को दूर किए बिना, उसे फिर से कानून बना कर लागू कर देना, अदालत की उक्त व्याख्या के विपरीत है और ऐसा अधिकार विधायिका को नहीं है।
संविधान में, शक्ति पृथक्करण यानी सेपरेशन ऑफ पॉवर का सिद्धांत, वह मूल सिद्धांत है, जो शासन के तीनों अंगों, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को, बिना एक दूसरे के, कार्य व्यापार में, हस्तक्षेप किए, अपने अपने कर्तव्यों और दायित्वों के निर्वहन करने की शक्तियां देता है। लेकिन इन तीनों में, न्यायपालिका की स्थिति इसलिए थोड़ी अलग है कि, न्यायपालिका को, विधायिका द्वारा पारित कानून की न्यायिक समीक्षा करने की शक्तियां हैं, और उक्त कानून को, संविधान के मूल ढांचे के विपरीत पाए जाने पर, उसे रद्द कर देने का अधिकार है।
हालांकि, विधायिका यानी संसद, सर्वोच्च है, क्योंकि वह जनता द्वारा निर्वाचित है और संसद की सर्वोच्चता का सिद्धांत, असल में जनता की सर्वोच्चता का सिद्धांत है। लेकिन, सर्वोच्चता का अर्थ यह भी नहीं है कि, बहुमत का दुरुपयोग कर के, ऐसे कानून बना दिए जाय, जो संविधान की मंशा के ही खिलाफ हों। लोकतंत्र या एक सभ्य गणराज्य में, जहां अधिकार और शक्तियों की बात की जाती है, वह असीमित नहीं होती है, बल्कि उनपर तरह तरह के राइडर भी होते हैं। संसद, अपनी असंदिग्ध सर्वोच्चता के बाद भी, संविधान के मूल ढांचे में कोई संशोधन या बदलाव नहीं कर सकती है, यह व्यवस्था भी सुप्रीम कोर्ट के केशवानंद भारती के मुकदमे में, सुप्रीम कोर्ट की तेरह सदस्यीय पीठ द्वारा दी गई है।
अब आते हैं, प्रवर्तन निदेशालय के प्रमुख के सेवा विस्तार के मसले पर। ईडी प्रमुख के सेवा विस्तार मामले में दायर याचिकाओं की सुनवाई करने के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, नवंबर 2022 के बाद से दिया गया सेवा विस्तार अवैध है। जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस विक्रम नाथ और संजय कॉल की पीठ ने कहा कि, "कॉमन कॉज बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में 2021 के फैसले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्देश की अनदेखी करते हुए कि एसके मिश्रा को और विस्तार नहीं दिया जाना चाहिए, जबकि, केंद्र सरकार ने उनका कार्यकाल बढ़ा दिया। उसके बाद दो बार नवंबर 2021 और नवंबर 2022 में कार्यकाल बढ़ाए गए।"
मद्रास बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ (2021), मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया बनाम केरल राज्य और अन्य, मदन मोहन पाठक और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य जैसे विभिन्न उदाहरणों का उल्लेख करते हुए, पीठ ने कहा कि "विधायिका, न्यायालय के फैसले के विपरीत, कानून बनाकर, अदालती फैसले को रद्द कर सकती है, लेकिन, किसी निर्णय का आधार हटाकर या कानून की खामियों को दूर करके ही ऐसा किया जा सकता है। यह कानून, पूर्वव्यापी (बैक डेट) से भी, लागू किया जा सकता है। लेकिन, हर हालत में, अदालती फैसले के मूल आधार का उपचार करना होगा। साथ ही, एक अधिनियम जो, केवल एक निर्णय को रद्द करने के उद्देश्य से लाया जाय, असंवैधानिक है।"
जस्टिस बीआर गवई ने, सेवा विस्तार के फैसले में लिखा है, "इस प्रकार, यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि, इस न्यायालय ने माना है कि, इस न्यायालय के निर्णयों के प्रभाव को, निर्णय के आधार को हटाकर, एक विधायी अधिनियम द्वारा रद्द किया जा सकता है। यह भी माना गया है कि, ऐसा कानून पूर्वव्यापी (बैक डेट से) हो सकता है। लेकिन, यह भी माना गया है कि, पूर्वव्यापी (बैक डेट ) संशोधन उचित होना चाहिए और मनमाना नहीं होना चाहिए और संविधान के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। यह माना गया है कि, बताई गई खामी को इस तरह से ठीक किया जाना चाहिए था कि, निर्णय का आधार दोष दूर हो गया है। हालाँकि, इस न्यायालय ने स्पष्ट रूप से माना है कि, एक अधिनियम द्वारा परमादेश को रद्द करना अस्वीकार्य विधायी कृत्य होगा।"
अदालत ने आगे माना है कि, "संवैधानिक सीमाओं का उल्लंघन और विधायिका द्वारा न्यायिक शक्ति में घुसपैठ का उल्लंघन, शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत, कानून के शासन और भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के विपरीत होगा।"
अदालत में, ईडी प्रमुख, एसके मिश्र के कार्यकाल के सेवा विस्तार का बचाव करते हुए, भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क दिया था कि, "केंद्रीय सतर्कता आयोग अधिनियम और मौलिक नियमों में किए गए संशोधन ने कॉमन कॉज़ निर्णय के आधार को बदल दिया।"
यह बात भी सच है कि, पीठ ने कहा कि "कॉमन कॉज फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने ईडी निदेशक का कार्यकाल बढ़ाने की केंद्र की शक्ति को स्वीकार किया था। उस फैसले में यह विशेष रूप से कहा गया था कि सरकार के पास 2 साल की अवधि से परे ईडी निदेशक को नियुक्त करने की शक्ति है।"
शीर्ष अदालत ने आगे कहा है, "ऐसा नहीं है कि इस न्यायालय ने यह माना है कि, सरकार के पास दो साल की अवधि से अधिक नियुक्ति करने की कोई शक्ति नहीं है। किए गए संशोधनों द्वारा, स्थिति स्पष्ट की गई है, जिसे चुनौती दी गई है।"
अदालत ने माना कि, "यह तर्क कि, जिस आधार पर कॉमन कॉज़ (2021) के मामले में इस न्यायालय का निर्णय आधारित था, उसे हटा दिया गया है, इसमें कोई दम नहीं है।"
अदालत ने इसे और स्पष्ट करते हुए कहा, "चूँकि कॉमन कॉज़ मामले में एक विशिष्ट आदेश जारी किया गया था कि, एसके मिश्र को आगे (नवंबर 2022 के बाद) सेवा विस्तार नहीं दिया जाना चाहिए, यह यूनियन ऑफ इंडिया और एसके मिश्रा दोनों, जो उक्त मामले में पक्षकार थे, के लिए बाध्यकारी आदेश था।"
लेकिन, इस स्पष्ट आदेश के बाद भी सेवा विस्तार दिया गया।
अतः अदालत ने आगे कहा, "पक्ष बनने के लिए जारी किया गया परमादेश उन दोनो पर ही बाध्यकारी था। इसलिए, हम पाते हैं कि प्रतिवादी नंबर 1 इस न्यायालय द्वारा अपने 8 तारीख के फैसले के तहत जारी किए गए परमादेश का उल्लंघन करते हुए 17 नवंबर 2021 और 17 नवंबर 2022 को आदेश जारी नहीं कर सकता था।"
यानी यह आदेश दोनो (यूनियन ऑफ इंडिया और एसके मिश्र ईडी निदेशक) के लिए बाध्यकारी था, पर इस आदेश का पालन करने के बजाय, भारत सरकार ने, नए कानून बना कर, सेवा विस्तार के नियम ही बदल डाले और नए नियम भी इस प्रकार बनाए गए, जिससे एसके मिश्र को ही आगे पुनः ईडी प्रमुख के रूप में सेवा विस्तार दिया जा सके। यानी एक व्यक्ति के लाभ के लिए, सरकार ने कानून बनाकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश का ही उल्लंघन कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय सतर्कता अधिनियम (CVC act) और दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम (DSPE Act) में 2021 के संशोधनों को तो वैध माना है लेकिन, सरकार के, उस तर्क को खारिज कर दिया, जिसमें, ईडी और सीबीआई प्रमुखों की शर्तों को एक बार में, केवल एक वर्ष का सेवा विस्तार देने की बात कही गई थी।
पीठ ने कहा, “यह सरकार की इच्छा पर निर्भर नहीं है कि, सीबीआई निदेशक या प्रवर्तन निदेशक को विस्तार दिया जा सकता है। यह, सेवा विस्तार, केवल उन समितियों की सिफारिशों के आधार पर ही होगा, जो उनकी नियुक्ति की सिफारिश करने के लिए गठित की जाती हैं और वह भी तब, जब यह (सेवा विस्तार देना) सार्वजनिक हित में पाया जाता है और, जब इनके कारण लिखित रूप में, मिनिट्स में, दर्ज किए जाते हैं, तो सरकार द्वारा ऐसा विस्तार दिया जा सकता है।"
याचिकाकर्ताओं ने जांच एजेंसियों की स्वतंत्रता के बारे में चिंता जताई थी और वरिष्ठ वकील गोपाल शंकरनारायणन ने निदेशकों को एक समय में केवल एक वर्ष का विस्तार देने की 'गाजर-और-छड़ी नीति' के रूप में वर्णित किया था। शंकरनारायणन ने तर्क दिया था, "प्रमुखों पर एक्सटेंशन की तलवार लटकाने और आगे के एक्सटेंशन के लिए, उन पर मानसिक रूप से दबाव बनाने के रूप में, केवल एक साल के सेवा विस्तार की नीति, गाजर-और-छड़ी नीति के आधार पर दिया जाने वाला सेवा विस्तार होगा। ऐसे सेवा विस्तार का लाभ पाने वाले निदेशक की अध्यक्षता वाली जांच, स्वतंत्र नहीं हो सकती है।"
यही राय, इस मुकदमे में, एमिकस क्यूरी (न्याय मित्र) की भी थी। के. लोकतंत्र के व्यापक हित. वरिष्ठ वकील (जैसा कि वह तब थे) ने पीठ को बताया था, "ये एजेंसियां महत्वपूर्ण काम करती हैं और इन्हें न केवल स्वतंत्रता बल्कि स्वतंत्रता की धारणा की आवश्यकता है।"
अदालत ने सुनवाई के दौरान विनीत नारायण के फैसले का उल्लेख किया। विनीत नारायण के फैसले में, अदालत की धारणा थी कि, सीबीआई और राजस्व विभाग जैसी जांच एजेंसियों को किसी भी बाहरी प्रभाव से बचाने की आवश्यकता है, ताकि वे अपने कर्तव्यों का निष्पक्ष और प्रभावी ढंग से निर्वहन कर सकें। विनीत नारायण के फैसले का उल्लेख करते हुए कहा, “विनीत नारायण के मामले में और उसके बाद के निर्णयों में जो निर्देशित किया गया है वह यह है कि [जांच एजेंसियों के निदेशक] का सेवानिवृत्ति की तारीख के बावजूद न्यूनतम दो साल का कार्यकाल होना चाहिए। आक्षेपित संशोधनों द्वारा, उक्त अवधि के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है। जो किया गया है वह यह है कि उनकी अवधि को एक बार में एक वर्ष की अवधि के लिए बढ़ाने की शक्ति दी गई है, जो अधिकतम तीन ऐसे विस्तारों के अधीन है। हालाँकि, ऐसा तभी किया जाना चाहिए जब उनकी नियुक्ति की सिफारिश करने के लिए गठित समिति को सार्वजनिक हित में ऐसा विस्तार देना आवश्यक लगे। उक्त उद्देश्य के लिए कारणों को लिखित रूप में दर्ज करना भी आवश्यक है। नियुक्ति के संबंध में उपरोक्त प्रावधान विनीत नारायण के मामले में इस न्यायालय द्वारा दिए गए निर्देशों के अनुसरण में अधिनियमित किए गए हैं।''
इस तर्क को खारिज करते हुए कि एकसाला विस्तार देने की नीति प्रवर्तन निदेशालय या केंद्रीय जांच ब्यूरो के निदेशकों के कार्यालयों को कार्यकारी प्रभाव के प्रति संवेदनशील बना देगी और संबंधित एजेंसी की स्वतंत्रता को खत्म कर देगी, पीठ ने कहा, “जब किसी समिति पर उनकी प्रारंभिक नियुक्ति की सिफारिश करने के संबंध में भरोसा किया जा सकता है, तो हमें इसका कोई कारण नहीं दिखता कि ऐसी समितियों पर इस बात पर विचार करने के लिए भरोसा क्यों नहीं किया जा सकता है कि सार्वजनिक हित में विस्तार दिया जाना आवश्यक है या नहीं। पुनरावृत्ति की कीमत पर, ऐसी समिति को ऐसी सिफारिशों के समर्थन में लिखित रूप में कारण दर्ज करने की भी आवश्यकता होती है। इसलिए, हम उन तर्कों को स्वीकार करने में असमर्थ हैं कि आक्षेपित संशोधन सरकार को ईडी या सीबीआई के निदेशक के कार्यकाल को बढ़ाने के लिए मनमानी शक्ति प्रदान करते हैं और इन कार्यालयों को बाहरी दबावों से दूर करने का प्रभाव डालते हैं।"
इस प्रकार ईडी प्रमुख के सेवा विस्तार में, अदालत ने, जो फैसला पहले, 2021 में, दिया था कि, अब और सेवा विस्तार नहीं दिया जा सकता, को सरकार ने कानून में संशोधन कर, उसे पांच साल तक दिए जाने का प्राविधान कर दिया। अदालत ने, इस संशोधन को वैध कहा, लेकिन इसी कानून के आधार पर, साल दर साल यानी एकसाला सेवा विस्तार की नीति को, एजेंसी की स्वतंत्रता के विरुद्ध और, निदेशक पर, दबाव बनाने के उद्देश्य से लिया गया निर्णय घोषित किया और 2022 के बाद के सेवा विस्तार को अवैध घोषित कर दिया।
चाहे, दो साल की अवधि का तयशुदा कार्यकाल हो, या उसके बाद का सेवा विस्तार वह उसी कमेटी द्वारा तय किया जायेगा जो इन पदों पर नियुक्त करने की सिफारिश करने की अधिकृत है। सेवा विस्तार का कारण, अपरिहार्यता और यह सब उक्त कमेटी की मिनिट्स में दर्ज हो, तभी सेवा विस्तार को नियमानुकूल माना जायेगा। सरकार, ने सेवा विस्तार का कानून संशोधित करते समय, यह पक्ष नजरअंदाज कर दिया था।
( लेखक पूर्व आईपीएस विचारक हैं)