हेमंत कुमार झा
इन हिंसक दिनों में हमने कुछ हिन्दी न्यूज चैनलों पर ऐसे रेखांकन देखे जिनमें एक तरफ नरेंद्र मोदी जी और दूसरी तरफ बेंजामिन नेतन्याहू हैं और दोनों के माथे पर एक तरह का तिलक लगा है। यह विजय तिलक की तरह का ही कुछ है।
यह चित्र ऐसा बताने का प्रयास करता है कि मोदी और नेतन्याहू इतिहास की समान भावभूमि पर खड़े हो कर कुछ नया रचने को कटिबद्ध हैं।
हिन्दी के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा जटिल अंतरराष्ट्रीय मुद्दों के प्रस्तुतिकरण का यह फूहड़ किंतु शातिराना अंदाज हमें अहसास दिलाता है कि इजरायल और फिलिस्तीन के विवाद में हिंदी पट्टी के लोगों के मानस को प्रभावित और प्रदूषित करने के किस तरह संगठित प्रयास किए जा रहे हैं।
महज कुछ दशक पहले तक आलम यह था कि इजरायल के साथ हमारे देश के राजनयिक संबंध भी घोषित तौर पर नहीं थे और आपसी संवाद के लिए दोनों देशों के नेता गण परोक्ष माध्यमों का सहारा लिया करते थे। भारत का मीडिया, खास कर हिन्दी मीडिया फिलिस्तीन के पक्ष में झुके हुए रिपोर्ट्स और आलेख प्रकाशित किया करता था और आम आदमी के मन में फिलिस्तीन के लोगों के प्रति नरम भावनाएं हुआ करती थीं। यासिर अराफात भारतीयों के लिए किसी संघर्षरत नायक की तरह थे और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ गर्मजोशी से भरी उनकी राजनयिक मुलाकातों की तस्वीरें अखबारों के पहले पन्ने पर छपा करती थीं।
यद्यपि, तब भी इजरायल की तारीफ करने वाले लोग यहां कम नहीं थे लेकिन यह तारीफ उसकी नीतियों से अधिक उसके जज्बे और उसकी बहादुरी की हुआ करती थी।
अरब-इजरायल विवाद की जितनी दृश्य-अदृश्य परतें हैं, इसका सिलसिला प्राचीनता की जिन गहरी खाइयों से उभर कर इतिहास के पन्नों में दर्ज होता है वे आम आदमी की आम समझ से बाहर हो जाती हैं और लोग सोचते ही रह जाते हैं कि आखिर ऐसा क्या है कि अतीत के अनेक वैश्विक शिखर सम्मेलनों और विश्व नेताओं के अथक प्रयासों के बाद भी यह मामला सुलझ नहीं रहा।
अब जब, नई सदी के तीसरे दशक में यह विवाद फिर से हिंसा और प्रतिहिंसा के रूप में दुनिया के पटल पर छा गया है, तो भी आम भारतीय इसकी जटिलताएं समझ नहीं पा रहा।
लेकिन, अंतर यह है कि इस नए परिदृश्य में अब हिन्दी मीडिया हमें यह समझाने का प्रयास कर रहा है कि हमास और हिजबुल्ला कितने बड़े आतंकवादी हैं और उन्होंने मानवता के समक्ष कितना बड़ा संकट खड़ा कर दिया है और कि इजरायल के लोग किस तरह अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए उन "आतंकवादियों" पर कहर बन कर टूट पड़े हैं।
अंग्रेजी मीडिया में ऐसी रिपोर्ट्स लगातार आती रही हैं कि गाजा में बसे फिलिस्तीनियों के साथ बीते वर्षों में इजरायल की सरकार किस तरह गुलामों जैसा बर्ताव करती रही है और किस तरह उन्हें मानवता के मूलभूत अधिकारों से भी वंचित किया जाता रहा है। लेकिन, नए दौर में हिन्दी मीडिया इस तरह की रिपोर्ट्स के प्रति कोई खास आग्रह दिखाता नहीं नजर आया।
यहां तक कि यूरोप और अमेरिका के बड़े अखबारों में भी पिछले साल कुछ रिपोर्ट्स में बताया गया था कि गाजा के लोगों का लगातार सांस्थानिक दमन हमास और हिजबुल्ला जैसे संगठनों को अराजक प्रतिक्रिया देने का अवसर दे सकता है जो हिंसा के नए दौर की शुरुआत कर सकता है लेकिन हिन्दी मीडिया प्रायः मौन ही रहा। नरेंद्र मोदी और बेंजामिन नेतन्याहू की गलबहियां की फोटो प्रकाशित करने में अति उत्साह दर्शाते हिन्दी के न्यूज चैनल और अखबार अपने पाठकों के सामने अर्द्धसत्य के साथ ही आते रहे।
2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद अक्सर हमारे सामने ऐसे हेडलाइंस आने लगे जिनमें बताया जाता रहा कि भारत और इजरायल के संबंध निकटता और गर्मजोशी के नए दौर में प्रवेश कर चुके हैं और दोनों देश मिल कर इतिहास को नया मोड़ देने के लिए कृतसंकल्पित हैं।
सत्य के एक पहलू को नजरअंदाज करने के जानबूझ कर किए जा रहे प्रयासों की ओर अंग्रेजी मीडिया तो अक्सर इंगित करता रहा लेकिन हिन्दी के मुख्य धारा का मीडिया यशोगान और विरुदावली में इस तरह लीन हो गया कि उसके लिए किसी दूसरे पक्ष की चीखों और चीत्कारों का अधिक मतलब नहीं रह गया।
देश के भीतर के प्रायोजित सांप्रदायिक आग्रहों का विदेश नीति के किसी अति महत्वपूर्ण मुद्दे के साथ सायास घालमेल का यह अनोखा उदाहरण है।
पहले से ही रूस-यूक्रेन युद्ध के संकट से जूझ रही दुनिया जब आज अरब-इजरायल विवाद के कारण भयानक युद्ध के आसन्न संकटों से सांसत में है, हमारे हिन्दी पट्टी में लोग विशेषज्ञों की तरह बातें करते बता रहे हैं कि किस तरह इसकी जड़ों में आतंकवाद के मंसूबे काम कर रहे हैं।
जब भारत सरकार फिलिस्तीनी आग्रहों के प्रति घोषित तौर पर समर्थन के भाव रखती थी तब भी इसके प्रवक्ता हिंसा की घटनाओं के प्रति सख्त प्रतिक्रिया दर्ज कराते रहते थे। भारत की विदेश नीति में कभी भी किसी भी तरह के आतंकवाद को प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन देने की कोई भी मंशा नहीं रही।
लेकिन, हालिया संकट के प्रति नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारत सरकार की प्रतिक्रिया भावनात्मक धरातल पर उस दौर की प्रतिक्रियाओं से अलग रुख दर्शाती प्रतीत होती है।
इजरायल और फिलिस्तीन के इस विवाद की अपने तरीके से व्याख्या कर इसका राजनीतिक दोहन 2024 के आगामी लोकसभा चुनाव में करने की कोशिशें इस नए अध्याय का सबसे त्रासद पक्ष हैं। हिन्दी के न्यूज चैनल और अखबार इस अभियान में सक्रिय तौर पर लग गए से प्रतीत होते हैं और हिन्दी का दर्शक-पाठक समाज इतिहास और अंतरराष्ट्रीय संबंधों की पूर्वाग्रहों से भरी व्याख्या देखते-सुनते न जाने कितने नए पूर्वाग्रह पालने लगा है।
बेंजामिन नेतन्याहू को अपना कोई "सगा" सा बताता हिन्दी मीडिया इस नए संकट के दौरान कहीं न कहीं इन कोशिशों में लगा रहा है कि फिलिस्तीनियों को पीड़ितों के रूप में नहीं बल्कि आतंकवादियों के रूप में दिखाया जाए और उन्हें कोसते हुए प्रकारांतर से एक धर्म को ही निशाना पर ले लिया जाए।
किसी खास धर्म को निशाना पर ले कर अंतरराष्ट्रीय मुद्दों की विवेचना का यह अंदाज हिन्दी मीडिया के लिए अधिक पुराना नहीं है। यह उस कुख्यात आईटी सेल के साथ एक ही भावभूमि पर खड़ा हो जाने का ऐसा अनपेक्षित अध्याय है जिसके अपने राजनीतिक उद्देश्य हैं। यह हिन्दी पत्रकारिता के गौरवशाली इतिहास को कलंक और पेशेवर पतन के गड्ढों में धकेलता है।
कोई भी शांतिप्रिय भारतीय नागरिक यही कामना करेगा कि इजरायल और फिलिस्तीन के तमाम निवासी विवादों का हल निकाल कर सुख, शांति और प्रगति के मार्ग पर चलें, सबका भारत के लोगों के साथ मैत्री का भाव हो, पूरी दुनिया में शांति रहे।
लेकिन, हिन्दी मीडिया नैतिक और पेशेवर पतन के जिस दौर में पहुंच चुका है वहां वह राजनीतिक उद्देश्यों से खलनायकों को गढ़ता है और अपने आग्रहों के अनुरूप नायकों के प्रतिमान भी गढ़ता है। इस पूरी प्रक्रिया में वह पत्रकारिता के न्यूनतम मानदंडों को भी धता बताता कहीं न कहीं मनुष्यता के सिद्धांतों के विरुद्ध भी खड़ा होता दिखने लगा है। इजरायल और फिलिस्तीन के विवाद में भारत की राजनीति तो अपनी अनैतिक नग्नता नहीं ही छुपा सकी, हिन्दी पत्रकारिता भी बेपर्दा हो चुकी है।
( लेखक पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।)